शुक्रवार, 13 मार्च 2015

स्थानीय संस्कृति की अन्तःप्रज्ञा का थोडा सा चैतन्य उजाला अपनी झोली में भर के ले आना...



स्थानीय संस्कृति की अन्तःप्रज्ञा का थोडा सा चैतन्य उजाला अपनी झोली में भर के ले आना...
प्रिय मित्र,
आपने मुझसे पूछा था कि मुबई से बैंगलौर आते समय मेरी यदि कुछ विशिष्ट चाहत हो, जो मुंबई में उपलब्ध हो और बेंगलुरु में अप्राप्य हो, तो आपको अवश्य बताऊँ.... आपको उसे पूरा करने में अत्यंत हर्ष होगा...|
पिछले कई दिनों से मैं इस बाबत सोचता रहा कि आपसे क्या मंगाऊँ...! नीचे कुछ चीज़ें लिख रहा हूँ जो आज बैंगलौर में बहुत दुर्लभ हो गयी हैं लेकिन संभवतः मुम्बई में आज भी सरल-सुलभ हैं....!
सर्व प्रथम, कुछ ऐसा जिसका मुकाबला बेंगलोर तो क्या पूरे देश में कोई शहर नहीं कर सकता.... हो सके तो उन विशिष्टताओं का कुछ अंश यहाँ भी लेते आना –
è मुम्बई की लोकल ट्रेन्स...

è हो सके तो उनकी समय-पाबन्दी, नियमितता, रफ़्तार, समुचित पहुँच एवं यात्री संख्या के सापेक्ष उनकी क्षमता का संतुलन.... क्या इनमें से कुछ यहाँ भी ला सकोगे...?

è मुम्बई के भारी-भरकम यातायात को पूरी मुस्तैदी से नियंत्रित तथा संयमित परिचालन करने की यातायात पुलिस की सामयिक सूझ-बूझ तथा संजीदगी का भी यदि कुछ अंश यहाँ बैंगलौर को भी मिल जाए तो यहाँ सड़कों पर होने वाली ९० प्रतिशत मुसीबतें कम हो जाएँगी ....!

è मुम्बई की संजीदगी से परिपूर्ण, संवेदनशील कार्य-संस्कृति तो पूरे देश में बेमिसाल है.... उसकी थोड़ी से सुवास भी यहाँ तक ला सको तो फूलों की इस दुर्गंध भरी नगरी में कुछ तो ताज़गी आ जायेगी...!  

è मुम्बई के ‘ डिब्बा वाला ’ जैसी सुनिश्चित एवं भरोसेमंद कार्य सेवा , अविश्वसनीयता की सीमा तक सही व्यकित तक टिफिन की सटीक पहुँच  और बेहतरीन गुणवत्ता वाला भोजन, और सबसे ऊपर कर्मचारियों का संजीदगी व संवेदनशीलता भरा कार्य-निरूपण...

è बैंगलौर में तो इसकी कल्पना भी नहीं हो पाती....!

è कहते हैं कि मुम्बई सारी रात जगता है.... वहाँ की पुलिस की मुस्तैदी और जागरूकता से भरी क्षमता को साधुवाद... कि वहाँ पर लोग रात्रि-काल में भी बाहर जाने का आनंद ले सकते हैं तथा देर रात तक अपनी मन-पसंद जगह पर खाने-पीने का लुत्फ़ उठा सकते हैं...|

è हाय..., हमारी, बैंगलौर की, बेहद आलसी, असंवेदनशील, अहंकारी, क्षमता-विहीन, कुसंस्कृत, लोभी-लालची, नासमझ, बेतमीज़ व नाकारा पुलिस...! रात के ११ बजे के बाद गुंडों से ज्यादा यहाँ की पुलिस से डर लगता है..., इसीलिए रात के ११ बजे के बाद पूरा बैंगलौर बंद हो जाता है और सो जाता है...

è सुना है, मुम्बई वासियों को अपनी संस्कृति से, भारतीयता से, अपने भोजन से, रहन-सहन के तौर-तरीकों से और अपनी भाषायी विरासत से बहुत प्यार है... बहुत गर्व भी है...! वे पश्चिम के मूर्खतापूर्ण अंधानुकरण से अभी भी बहुत हद तक बचे हुए हैं... स्वयम को भारतीय कहलाने में शर्म महसूस नहीं करते... और ना ही किसी भी सूरत में अपनी सभ्यता और संस्कृति को पश्चिमी संस्कृति ( – क्या वाकई में ऐसा कुछ है वहाँ...?) की तुलना में कतई हीन अथवा पिछड़ा हुआ मानते हैं...!

è उनके इस जज़्बे की कुछ अमृत-बूदों को यहाँ बैंगलौर के तथाकथित आधुनिक, ‘ धर्म-निरपेक्ष ( सैकुलर ) कुबुद्धि-जीवियों की मूढ़, ठस, रेतीली तथा पाखण्ड और घमंड से भरी पपड़ी-नुमा खोपड़ियों पर भी यदि डाल सकें तो इस शहर को तेज़ी से होते जा रहे पश्चिमीकरण के मूढ़तापूर्ण अंधानुकरण से पुनः अपनी ओजस्वी, श्रेष्टतम, ज्ञानोन्मुख, मानवीयता व संवेदनशील सृजनात्मकता से भरी भारतीय संस्कृति की ओर लाने में कुछ अर्थों-आयामों में सहायता मिल सकेगी....!

è हे मेरे मित्र, यदि ला सको तो वहाँ की समुद्री हवाओं की थोड़ी सी आर्द्रता ले आना.... यहाँ के लोग झूठी बुद्धिवादिता व आधुनिकता के फेर में कुछ ज्यादा ही सूख गए हैं... शुष्क हो गए हैं... इसी से ज्ञान व प्रज्ञा प्रदायक संवेदनशीलता का अमृत-रस भी सूख गया है... इसीलिए तो खोपड़ियों पर मूढ़ता व अकड से पकी पपड़ी जमी नज़र आती है....!

è और मित्र, मैंने तो ये भी सुना है कि मुम्बई के भोजनालयों में मुम्बई / महाराष्ट्र का पारम्परिक भोजन बहुतायत में सर्व-सुलभ है और हर समय उपलब्ध रहता है.... |

è बैंगलौर में तो नयी पीढ़ी की जमात को तो ये भी नहीं पता कि उनका पारम्परिक भोजन क्या और कैसा होता है....! यहाँ के भोजनालयों में दुनिया का अधिकाँश भोजन उपलब्ध है लेकिन कर्नाटक का स्थानीय-पारम्परिक भोजन कहीं नहीं मिलेगा, विशेषकर संध्या -रात्रि काल में...! हाँ, स्थानीय नाश्ता अवश्य सर्व-सुलभ है, लेकिन वो भी अधिकांशतः परम्परा-विकृत पाक विधियों व स्वादों के रूप में...!

è सो हे मेरे मित्र, यूँ तो मुम्बई से मंगाने के लिए बहुत कुछ है जिसकी यहाँ सख्त ज़रूरत हो सकती है.... लेकिन आपको अधिक कष्ट ना देते हुए सिर्फ इतनी ही गुजारिश करूँगा कि वहाँ की स्थानीय संस्कृति की अन्तःप्रज्ञा का थोडा सा चैतन्य उजाला अपनी झोली में भर के ले आना... क्या पता यहाँ की पतन की ओर जाती हुयी पाश्चात्य अंध-भक्ति तथा उसके विवेकहीन अंधानुकरण की घोर पदार्थवादी मूल्यांकन वाली अस्वास्थ्यकर मानसिकता में कुछ विधायक चेतना का प्रादुर्भाव हो सके...!

सादर,

आपका अकिंचन मित्र  
बैंगलौर, मार्च १३, २०१५






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